दोस्तों हम जानते हैं। कि ब्रह्मांड में ऐसी कोई वस्तु नहीं है। जो अमर हो जिसका जन्म हुआ है। उसका अंत भी निश्चित है। चाहे वह कोई भी हो या हमारा सौरमंडल या फिर पूरा ब्रह्मांड ऐसा माना जाता है। कि हमारा ब्रह्मांड भी एक दिन उसी बिंदु में समाहित हो जाएगा जिससे उसका जन्म हुआ है।
वही हमारी पृथ्वी सहित हमारा पूरा सौरमंडल हमारे सूर्य से जन्मा है। और 1 दिन इसी सूर्य में समा जाएगा लेकिन इसमें वक्त कितना लगेगा कई सारे वैज्ञानिक आकलन के मुताबिक अभी हमारा सूर्य अपनी युवावस्था में ही है। हमारे सूर्य की उम्र करीब 450 करोड़ साल हो चुकी है।
और अभी यह 500 करोड़ों सालों तक यूं ही धड़कता रहेगा अपने जीवन के आखिरी कुछ करोड़ सालों में हमारे इस जीवनदायिनी तारे के केंद्र का हाइड्रोजन समाप्त होने के कगार पर होगा जिसके कारण सूर्य के केंद्र का तापमान अपनी हद पार कर देगा और इसका आकार धीरे-धीरे पड़ने लगेगा बढ़ते आकार के कारण एक-एक करके सारे ग्रह सूर्य में समा जाएंगे
सूर्य का आकार इसके वर्तमान आकार से 100 गुना अधिक हो जाएगा फिर इसकी बाहरी परत सूखे हुए पत्तों की तरह उड़कर अंतरिक्ष में फैल जाएगी एक दूजे हुए कोयले के समान अंतरिक्ष में तैरता रहेगा यह सब सुनने में काफी डरावना लगता है।
2019 chinese film में सुर्य गणना की है।
लेकिन इस प्रक्रिया को घटित होने में अभी कई सौ करोड़ सालों का वक्त है शायद हम इंसानियत सब कुछ देखने से पहले ही किसी अन्य कारण से नष्ट हो चुके होंगे * 2019 में नेटफ्लिक्स पर रिलीज हुई एक चीनी फिल्म में दिखाया गया है। कि सूर्य की उम्र की गणना करने में वैज्ञानिकों से भूल हुई है वास्तव में सूर्य करोड़ों सालों में नहीं बल्कि हजारों सालों में ही नष्ट होने वाला है।
कोंन सा फ़िल्म में सूर्य की गणना की है।
इस फिल्म का नाम है। तब वंडरिंग और फिल्म में दिखाया गया है। कि वैज्ञानिकों ने पूरी पृथ्वी पर भारी-भरकम क्रिस्टल रॉकेट लगा दिए हैं। ताकि हम अपनी पृथ्वी को लगातार फैलते सूर्य से दूर किसी अन्य सौरमंडल में ले जाकर बचा सके पृथ्वी को अपने पद से दिखाने में विज्ञानिक कामयाबी हो जाते हैं। और हमारी पृथ्वी सूर्य से दूर हटने लगती है।क्या हम पृथ्वी को कही अन्य ग्रह पे ले जा सकते है।
दोस्तों यह तो फिल्म की बात हुई लेकिन क्या वास्ते जीवन में हम ऐसा कर सकते हैं। क्या हमारा विज्ञान इस काबिल है। कि हम जिस पृथ्वी पर रहते हैं। उसी को उड़ा कर कहीं और ले जाएं जानने की कोशिश करते हैं। दोस्तों हमारे विज्ञानिक कई वर्षों से छोटे उल्का पिंडो एक सुंदर ग्रहों आदि को उनके कक्षा से हिलाने अब बदलने की तकनीक विकसित करते आ रहे हैं।
क्या पृथ्वी पर अलका पिंड गिर सकता है।
ताकि अगर भविष्य में कोई एस्ट्रॉयड पृथ्वी से टकराने के लिए पृथ्वी की ओर बढ़े तो उसकी दिशा बदलकर पृथ्वी को बचाया जा सके किंतु यह तकनीक बड़ी ही विध्वंस कार्य है मतलब हमें अपनी ओर बढ़ते एस्ट्रो रेट पर किसी परमाणु बम आदि से विस्फोट करना होगा
पृथ्वी पर अलका पिंड गिरा तो हम कैसे बचें
अब परमाणु बम हमला एकविरा ने एक ट्वीट पर तो कर सकते हैं। लेकिन उस पृथ्वी पर नहीं कर सकते जिस पर हम रहते हैं। एक तो पृथ्वी रेस्टोरेंट्स की तुलना में बेहद बड़ी है। और सबसे बड़ी बात कि यदि ऐसा प्रयास पृथ्वी पर किया गया तो सूर्य की गर्मी से पहले हम सब उस परमाणु विस्फोट से ही मारे जाएंगे
पृथ्वी पर परमाणु रॉकेट
इलेक्ट्रिक थ्रस्टर्स दोस्तों हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है। जब भी कोई रॉकेट पृथ्वी से लांच होता है। तो वह रॉकेट आगे बढ़ते समय अपने पीछे भी एक फर्स्ट ईयर धक्का देता है। ठीक वैसा ही है। जैसे जब हम बंदूक से गोली छोड़ते हैं। तब हमारे हाथ भी एक झटके से पीछे की ओर जाते हैं।
जब पृथ्वी से कोई रॉकेट लॉन्च होता है। तो रॉकेट पृथ्वी पर एक विपरीत आवेग लगाता है। लेकिन हमारी पृथ्वी इतनी बड़ी है। कि किसी मानव निर्मित रॉकेट की पृथ्वी के द्रव्यमान के सामने कोई हैसियत नहीं है। इसलिए रॉकेट द्वारा लगाया गया विपरीत बल एक चींटी द्वारा हाथी के शरीर को दिखाने जितना ही मामूली है यानी हमें बहुत बड़े भारी और अधिक संख्या में रॉकेट चाहिए होंगे
अंदाज हमें पृथ्वी के 85% भाग पर रॉकेट तैनात करने होंगे तब जाकर कहीं इतना बल पैदा हो सकता है। जो पृथ्वी को दिखाने के काबिल हो यानी पृथ्वी के 85% हिस्से पर तो रॉकेट तैनात होंगे और बाकी के 15% हिस्से पर हमें और अन्य जीवो को रहकर गुजारा करना होगा और अभी तक इन रॉकेट को बनाने में आए खर्च कुंदन की बातों में कर ही नहीं रहा शायद संपूर्ण पृथ्वी पर इतने ज्यादा रॉकेट बनाने का मटेरियल झूठा नहीं नामुमकिन होगा
अगर किसी तरह से हम ऐसा कर भी लेते हैं तो धरती के 85% हिस्से पर तैनात रोके तो से निकलने वाली भयंकर ऊष्मा पृथ्वी को ही जलाकर राख कर डालेगी डालेगी अगर हम फिल्में दिखाई दे विशाल इलेक्ट्रिक थ्रस्टर तकनीक की बात करें तो यह राष्ट्र भले ही संख्या में कम हो लेकिन यह बेहद ही विशाल बनाने होंगे कम से कम इनकी ऊंचाई 1000 किलोमीटर तो होनी चाहिए यानी एवरेस्ट की तुलना में भी 10 गुना से भी अधिक ऊंचाई वाले इलेक्ट्रिकल थ्रस्टर ताकि इनके द्वारा छोड़े जाने वाली ऊष्मा हमारे वायुमंडल से बाहर चली जाए
इससे हमारे वातावरण को कोई नुकसान नहीं होगा परंतु इस तकनीक में बहुत ही ज्यादा बिजली खर्च होगी आज के पूरे विश्व की मांग से कम से कम 800 गुना ज्यादा तब जाकर हमारी पृथ्वी को अंतरिक्ष में लहराया जा सकता है। इतनी अधिक बिजली का उत्पादन करना हमारे लिए नामुमकिन ही है। सूर्य प्रकाश से यात्रा दोस्तों प्रकाश का कोई वजन नहीं होता इसलिए जी से चलता है। प्रकाश बेहद ही ऊर्जावान होता है। अगर हम पृथ्वी पर पड़ता प्रकाश एक ही जगह केंद्रित करने में सफल हो जाए
जैसे कि लेजर लाइट में होता है। तो हम सूर्य की असीम ताकत का बेहतर इस्तेमाल कर पाएंगे इस तकनीक के लिए पृथ्वी का कोई संसाधन इस्तेमाल नहीं करना पड़ेगा क्योंकि इसके लिए ऊर्जा हमें सूर्य से ही मिल जाएगी हमें बस कोई ऐसी तकनीक चाहिए जो सूर्य से प्राप्त उर्जा को लेजर में बदलकर तेजी से वापस अंतरिक्ष में छोड़े इससे हमारी पृथ्वी धीरे-धीरे स्थानांतरित होना शुरू हो जाएगी
लेकिन इस प्रक्रिया में भी बहुत ही समस्याएं हैं। पहली तो ऐसी कोई तकनीक हमारे पास नहीं है। जिससे हम सूर्य की ऊर्जा का पूरी तरह से प्रयोग कर सकें दूसरे यदि हम ऐसा कर भी पाते हैं। तो लेजर के रूप में परिवर्तित होता सूर्य का प्रकाश हमारी पृथ्वी के वातावरण को बहुत ही अधिक गर्म कर देगा।
क्या सूर्य हमसे दूर हो जाएंगे
इतना गर्म के कोई जीव उस गर्मी को सहन नहीं कर पाएगा तीसरी समस्या यह होगी कि जैसे-जैसे हम सूर्य से दूर होते जाएंगे वैसे वैसे हमें मिलने वाली सूर्य की रोशनी भी कम होती जाएगी और हमें रास्ते में पड़ने वाले अनेकों ग्रहों के गुरुत्वाकर्षण बल से बचने के लिए निरंतर ऊर्जा की आवश्यकता पड़ेगी।
वैसे अगर एक बार हमें गति मिल गई तो हम विशाल सुरपाल का उपयोग करके सूर्य की हल्की रोशनी से भी कुछ हद तक ऊर्जा प्राप्त करके अपनी गति बरकरार रख सकते हैं। सुरपाल का उपयोग करके ही आज विज्ञानिक स्पेसक्राफ्ट को अंतरिक्ष में उड़ाते हैं। क्योंकि अंतरिक्ष में वैक्यूम होता है। तो प्रकाश यानी फोटोन की टक्कर से शोर पाल के साथ बंदेया अंतरिक्ष में गतिमान होने लगते हैं।
लेकिन यह तकनीक छोटे या 9 तक ही ठीक है। पृथ्वी को अन्य बड़े ग्रहों के गुरुत्वाकर्षण बल से बचाते हुए गतिमान बनाए रखने के लिए पृथ्वी के व्यास की तुलना में करीब 19 गुना बड़े सुरपाल पृथ्वी के चारों ओर बांधने होंगे ऐसा करना कहीं से भी मुमकिन नहीं दिखाई पड़ता इस लिंग शॉट दोस्तों जब अंतरिक्ष में घूमने वाले कोई भी दो ग्रह उपग्रह या एस्ट्रो एक दूसरे के गुरुत्वाकर्षण बल वाले क्षेत्र में आते हैं।
क्या चंद्रमा पृथ्वी के चारो ओर घूमती है।
तो उनकी गति में बदलाव होने लगता है। उदाहरण के लिए हमारा चंद्रमा हमारी पृथ्वी के चारों ओर घूमता है। लेकिन साथ ही पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण बल चांद के और वैज्ञानिक कक्षा को प्रभावित करता रहता है। जिसे चांद पृथ्वी से हर साल 3.78 सेंटीमीटर दूर हो रहा है। इसी तकनीक का प्रयोग इसरो ने मार्स ऑर्बिटर मिशन के वक्त किया था शॉर्ट को आप ऐसे समझ सकते हैं। कि जब कोई दो अंतरिक्ष की अपील अपने पद पर एक दूसरे की परिक्रमा करते हैं।
क्या पृथ्वी और चंद्रमा की दूरी सदैव बराबर रहती है।
तो उनके बीच की दूरी सदैव समान नहीं रहती दूरी कम या ज्यादा होती रहती है। जब दूरी अधिक होती है। तो पिंडों की चाल धीमी होती है। और जब दूरी कम होती है। तो तेज गुरुत्वाकर्षण बल के कारण विंडो की गति भी तेज हो जाती है। इसरो ने इसी सिद्धांत का फायदा उठाते हुए अपने मंगलयान की गति को बढ़ाया था मंगलयान पृथ्वी की कक्षा को छोड़ने से पहले पृथ्वी की परिक्रमा करता रहा और उसके द्वारा लगाए गए हर एक चक्कर के साथ मंगलयान की गति में वृद्धि होती रही किस तरह से मंगलयान में ईंधन की भारी बचत की गई और यह मिशन सिर्फ 74 मिलियन डॉलर में ही पूरा हो गया।
क्या मंगलयान पृथ्वी से छोटा है।
क्योंकि मंगलयान पृथ्वी के सामने बेहद छोटा था इसलिए उसके प्रभाव से पृथ्वी की गति में कोई परिवर्तन आना संभव नहीं था
क्या होगा जब हम अंतिरक्ष की तुलना करें तो।
क्या होगा अगर हम किसी अंतरिक्ष यान की तुलना में एक बहुत ही बड़ी मस्त भु का उपयोग करते हैं। किसी बड़े एस्ट्रॉयड की सहायता से हम निश्चित रूप से पृथ्वी की कक्षा में बदलाव ला सकते हैं। हमारे सौरमंडल में आने को छोटे-बड़े एस्टेट और धूमकेतु हैं। मंगल और बृहस्पति ग्रह के बीच में स्टेट बैंक की विशाल शृंखला है। हमें एक सही आकार के स्टूडेंट का चुनाव करना है।
और उसकी दिशा बदलकर उसे पृथ्वी के पास से गुजारना है। स्ट्रीट की गुरुत्वाकर्षण बल के खिंचाव से पृथ्वी अपनी जगह बदलना शुरू कर सकती है। वैसे दोस्तों यह तकनीक सुनने में आसान और रोमांचक लग सकती है। लेकिन एक्टिवेट बेहद छोटे होते हैं। और पृथ्वी बड़ी पृथ्वी को अपनी कक्षा से विस्थापित करने में हमें अंदाज अनेक लाख स्टूडेंट्स की आवश्यकता पड़ सकती है।
कितने सारे एस्ट्रॉयड की दिशा में परिवर्तन करना हमारे लिए कम से कम वर्तमान में तो संभव नहीं है। और यदि कहीं हमारा गणित जरा सा गड़बड़ा गया तो वह स्टूडेंट पृथ्वी के पास से गुजरने की बजाय सीधे पृथ्वी से टकराता है। हम सबका काम तमाम कर डालेंगे कुल मिलाकर निष्कर्ष यही है।
दोस्तों के अभी इंसान इतना बुद्धिमान नहीं हुआ है कि फिल्म की कहानी में दिखाएं अनुसार या अन्य किसी भी तरीके से एक ग्रह को अपनी जगह से कहीं और ले जा सके हो सकता है। कि आने वाले भविष्य में ऐसा संभव हो जाए लेकिन अभी इस कल्पना को सिर्फ फिल्मों तक ही रखना सही रहेगा पोस्ट को पूरा देखने के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद
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